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12-04-2022 |
प्रात:मुरली ओम् शान्ति "बापदादा"' |
मधुबन |
“मीठे बच्चे - तुम दु:ख हर्ता
सुख कर्ता बाप के बच्चे हो, तुम्हें मन्सा-वाचा-कर्मणा
किसी को भी दु:ख नहीं देना है, सबको सुख दो'' |
|
प्रश्नः- |
तुम बच्चे मनुष्य से देवता बनते हो इसलिए तुम्हारी मुख्य धारणा क्या होनी
चाहिए? |
उत्तर:- |
तुम्हारे मुख से जो भी बोल निकलें - वह एक-एक बोल मनुष्यों को हीरे जैसा बना
दें। तुम्हें बहुत मीठा बनना है, सबको सुख देना है। किसी को भी दु:ख देने का
ख्याल न आये। तुम अभी ऐसी सतयुगी स्वर्ग की दुनिया में जाते हो जहाँ सदा सुख ही
सुख है। दु:ख का नाम निशान नहीं। तो तुम्हें बाप की श्रीमत मिली है बच्चे, बाप समान दु:ख हर्ता सुख कर्ता
बनो। तुम्हारा धन्धा ही है सबके दु:ख हरकर सुख देना। |
गीत:- |
इस पाप की दुनिया से ..... |
ओम् शान्ति। बच्चों ने यह गीत सुना। बच्चे
जानते हैं कि हम पुरुषार्थ करते हैं - ऐसी दुनिया में जाने के लिए, जहाँ एक तो माया नहीं होती और
कभी भी मन्सा-वाचा-कर्मणा कोई को कोई भी दु:ख नहीं देते इसलिए उनका नाम ही है
स्वर्ग,
पैराडाइज, वैकुण्ठ और बरोबर वहाँ के मालिक
लक्ष्मी-नारायण का चित्र भी दिखाते हैं। प्रजा का तो चित्र नहीं दिखायेंगे।
लक्ष्मी-नारायण का चित्र है, जिससे सिद्ध होता है कि उन्हों की राजधानी में जरूर ऐसे ही मनुष्य होंगे। भारत
में ही यह स्वर्ग के मालिक थे, जहाँ दु:ख का नाम निशान नहीं रहता। मन्सा-वाचा-कर्मणा कोई भी किसको दु:ख नहीं
देते। बाप भी कभी किसको दु:ख नहीं देते हैं। उनका नाम बाला है - दु:ख हर्ता सुख
कर्ता। वह बैठ तुम बच्चों को पढ़ाते हैं। इस दुनिया में सभी मन्सा-वाचा-कर्मणा एक
दो को दु:ख देने वाले हैं। वहाँ मन्सा-वाचा-कर्मणा सब सुख देने वाले हैं। परमपिता
परमात्मा के सिवाए कोई भी स्वर्ग का मालिक बना नहीं सकता। बरोबर स्वर्ग था। यहाँ
भी देखो साइन्स से क्या-क्या बनता रहता है। एरोप्लेन, मोटरें, महल आदि कैसे बन जाते हैं। वहाँ
भी साइंस सारी काम में आती है। ऐसे नहीं जमीन से कोई बैकुण्ठ निकल आयेगा। जैसे
दिखाते हैं द्वारिका समुद्र के नीचे चली गई। जो समुद्र के नीचे जायेगी वह तो गलकर खत्म हो जायेगी।
नयेसिर सब कुछ बनना है तो बाप से जबकि हम बादशाही प्राप्त कर रहे हैं तो
मन्सा-वाचा-कर्मणा किसके प्रति बुद्धि में दु:ख देने का ख्याल नहीं आना चाहिए। भल
यह है ही माया का राज्य। मन्सा तूफान तो आयेंगे। बाकी दिल में किसको दु:ख देने का
ख्याल भी नहीं आना चाहिए। इस समय सब एक दो को दु:ख ही देते हैं। समझते सुख हैं, परन्तु वह है दु:ख। बाप से सबको
बेमुख करते हैं। यह भक्ति मार्ग भी ड्रामा में है। ड्रामा को कोई भी जानते ही
नहीं। वह लोग समझते हैं हम यह शास्त्र आदि सुनाते हैं, यह भी ज्ञान देते हैं। जप तप आदि
करने से मनुष्य मुक्ति जीवनमुक्ति को पा लेंगे। अनेक प्रकार के रास्ते बताते हैं।
कहेंगे बहुत समय से भक्ति करते आये हैं तब तो भगवान आया है। हम भी कहते हैं भक्ति
का जब अन्त होता है तब भगवान को आना होता है, आकर भक्ति का फल देते हैं। तो वह सब भक्ति की
लाइन में चले जाते हैं। इसको ज्ञान नहीं कहेंगे। शास्त्रों के ज्ञान से सद्गति
नहीं होती। सृष्टि के आदि मध्य अन्त का ज्ञान तो उन्हों को है ही नहीं। यह तुम
जानते हो प्राचीन ज्ञान और योग से भारत स्वर्ग बना था, सो जरूर भगवान ही सिखलायेगा।
मनुष्य तो राजयोग सिखला न सके। भगवान ने जो सहज राजयोग सिखलाया उनका बाद में
शास्त्र बनाया है। यहाँ तो भगवान खुद बैठ नॉलेज समझाते हैं। गीता में सिर्फ एक भूल
की है जो नाम बदली कर दिया है और समय भी दूसरा लिख दिया है।
तुम जानते हो अभी भगवान हमको ज्ञान और राजयोग सिखला रहे हैं। सृष्टि के आदि
मध्य अन्त का ज्ञान और कोई शास्त्र में नहीं है। कल्प की आयु भी लम्बी चौड़ी कर दी
है। मनुष्य तो वही शास्त्र पढ़ते रहते हैं। बाप ने समझाया है - यह सृष्टि रूपी
झाड़ है। झाड़ में पहले थोड़े पत्ते फिर बढ़ते जाते हैं। भिन्न-भिन्न धर्म के
पत्ते दिखाये जाते हैं। वास्तव में यह जो भी वेद शास्त्र हैं वह सब भगवत गीता के
पत्ते हैं अर्थात् उनसे निकले हुए सब शास्त्र हैं। तुम देखते हो बरोबर नये झाड़ की
स्थापना होती है। तूफान आदि में कोई तो झट मुरझा जाते हैं, गिर पड़ते हैं। तुम जानते हो अभी
हमारे दैवी झाड़ का फाउन्डेशन लग रहा है। और जो धर्म स्थापक हैं वह यह नहीं जानते
कि हम क्रिश्चियन धर्म का अथवा फलाने धर्म का फाउन्डेशन लगाते हैं। पीछे समझ में
आता है कि फलाने ने यह फाउन्डेशन लगाया। यहाँ तो कांटों को फूल बनाना होता है। तुम
जानते हो हमको तो देवता बनना है। सबको सुख देना है। किसको दु:ख देने का ख्याल भी
नहीं आना चाहिए। एक-एक अक्षर मुख से ऐसा निकले जो मनुष्य को हीरे जैसा बना दे। बाप
भी हमको ज्ञान सुनाते हैं,
जिसको
धारण करते-करते हम हीरे जैसा बन जाते हैं। वास्तव में टीचर किसको दु:ख क्यों देवे, वह तो पढ़ाते हैं। हाँ समझाया
जाता है - अगर अच्छी रीति नहीं पढ़ेंगे तो 21 जन्म के लिए घाटा पड़ जायेगा। 21 जन्मों के लिए अब ही पुरुषार्थ
करना है। बाप मिला है,
जिसको ही
भक्ति मार्ग में याद करते थे - हे भगवान। साधू सन्त आदि सब याद करते हैं। भगवान तो
एक है। परन्तु वह कौन है - यह नहीं जानते। श्रीकृष्ण तो सतयुग में प्रिन्स था।
उनको तो ऐसे कोई नहीं कहेंगे कि वह सर्व का दु:ख हर्ता सुख कर्ता है। वही
श्रीकृष्ण की आत्मा जो सुख में थी, अब दु:ख में है। भगवान के लिए ऐसे नहीं
कहेंगे ना। वह तो दु:ख सुख से न्यारा है। उनको मनुष्य का तन है नहीं। बाप जो
स्थापना करते हैं,
वहाँ सुख
ही सुख है। तब गाया जाता है दु:ख हर्ता सुख कर्ता।
तुम जानते हो हम रावण के राज्य में आधाकल्प दु:खी थे। अल्पकाल का सुख रहता है
बाकी दु:ख ही दु:ख है। जिसको संन्यासी लोग काग विष्टा समान सुख कहते हैं क्योंकि
विकार से पैदा होते हैं ना। लेकिन कोई पवित्र प्रवृत्ति मार्ग भी होगा, जहाँ कोई भी विकार नहीं होगा।
बरोबर वह सतयुग में था। उसका नाम ही है स्वर्ग। वह है पवित्र मार्ग, स्वर्ग। फिर पतित बनते हैं तो
उनको कहा जाता है नर्क,
भ्रष्टाचारी
मार्ग। यह दु:ख सुख का खेल बना हुआ है। मनुष्यों को अभी-अभी सुख, अभी-अभी दु:ख। उनको यह मालूम ही
नहीं कि स्वर्ग में सदा सुख होता है, दु:ख का नाम निशान भी नहीं रहता। यहाँ फिर
सुख का नाम-निशान भी नहीं है। विकार में जाना - यह तो दु:ख ही है, तब तो संन्यासी भी संन्यास करते
हैं परन्तु वह है निवृत्ति मार्ग। सतयुग में प्रवृत्ति मार्ग था, वह था शिवालय। देवी देवतायें, लक्ष्मी-नारायण आदि के जड़ चित्र
मन्दिरों में भी कैसे ताज व तख्त से सजे हुए हैं। भारत ही है जिसमें राजा-रानी
दैवी सम्प्रदाय थे,
और कोई
धर्म में ऐसे नहीं हैं। भल राजायें तो हुए हैं परन्तु डबल ताज नहीं है। सतयुग में
शुरू से ही राजाई चलती है। आदि सनातन डबल सिरताज देवी-देवता धर्म था। वह धर्म कैसे
स्थापन हुआ,
यह सब
बातें तुम बच्चे ही जानते हो। शिवबाबा की मत से तुम दु:ख हर्ता सुख कर्ता बनते हो।
तुम्हारा धन्धा ही यह है - सबका दु:ख हरकर सुख देना। अगर तुम भी किसको दु:ख देंगे
तो कौन कहेगा कि यह दु:ख हर्ता सुख कर्ता की सन्तान हैं। पहले मन्सा में ख्यालात
आते हैं फिर एक्ट में आते हैं। तुम बच्चों को तो अति मीठा बनना है। भगवान पढ़ाते
हैं तो जब तक चलन तुम्हारी दैवी नहीं होगी तो मनुष्य तुम पर विश्वास कैसे करेंगे।
गीता में भी लिखा है भगवानुवाच मैं तुमको नर से नारायण बनाता हूँ। भगवान जरूर संगम
पर होगा। भगवानुवाच - मैं तुमको राजयोग सिखाता हूँ तो जरूर पुरानी दुनिया का विनाश
भी हुआ होगा। यह काम कोई कृष्ण का नहीं है। त्रिमूर्ति दिखाते हैं परन्तु शिव को
उड़ा दिया है। फिर कहते हैं ब्रह्मा को तो 3 मुख होते हैं। यह एक मुख वाला ब्रह्मा कहाँ
से आया। अब मनुष्य को 3
मुख कैसे
होंगे। बाप कहते हैं तुम मेरे समझू सयाने बच्चे हो। तुम ही विश्व पर राज्य करते
थे। अब बाबा तुमको देही-अभिमानी बना रहे हैं। अब अपने को आत्मा समझो। मुक्तिधाम
में सबको अशरीरी बनाए भेज देते हैं। यहाँ आकर तुमने यह शरीर धारण किया है। शरीर
धारण करते-करते तुमको देह-अभिमान पक्का हो गया है। अभी तुम अपने को आत्मा समझो।
मुझ आत्मा ने 84
जन्मों का
पार्ट बजाया है। अभी यह अन्तिम जन्म है, ऐसे-ऐसे अपने साथ बातें करो। बाप कहते हैं
अभी तुम देही-अभिमानी बनो,
वापिस
लौटना है,
फिर तुम
स्वर्ग में आयेंगे। अभी तुम मेरे द्वारा स्वर्ग की बादशाही लेने की मेहनत कर रहे
हो। बाप को तुम भूल जाते हो तो खुशी का पारा नही चढ़ता है। शास्त्रों में कितनी
भारी भूल कर दी है,
शिवबाबा
को ही उड़ा दिया है। पूजा करते भी कह देते हैं नाम रूप से न्यारा है। अरे तब पूजा
किसकी करते हो! याद किसको करते हो! कहते भी हो आत्मा भ्रकुटी के बीच में रहती है।
परन्तु आत्मा किसकी सन्तान है - यह नहीं जानते। मैं आत्मा भ्रकुटी के बीच में रह
इस शरीर द्वारा पार्ट बजाता हूँ, इस पुतले को नचाता हूँ। कठपुतलियों का डांस होता है ना। वह दूसरे आदमी बैठ
डांस कराते हैं। पहले-पहले तो देही-अभिमानी बनना है और बाप जो कुछ समझाते हैं उसको
धारण करना है। प्रदर्शनी में पहले-पहले तो बाप का परिचय समझाना है कि यह सबका बाबा
है,
वह
निराकार,
दूसरा
साकार प्रजापिता - दो बाबायें हैं। तुम जानते हो लौकिक बाप भी है, पारलौकिक बाप भी है। वह हद का, वह बेहद का। अब नई रचना रच रहे
हैं। हम वर्सा शिवबाबा से लेते हैं। ऐसी-ऐसी बातें अपने साथ करके पक्का कर देना
है। देही-अभिमानी बनना है। हम शिवबाबा के पास पढ़ने जाते हैं, परमपिता परमात्मा निराकार है।
साकार है प्रजापिता ब्रह्मा। तुम हो प्रजापिता ब्रह्मा के मुख वंशावली ब्राह्मण।
तुमको ब्रह्मा ने एडाप्ट किया है। तुम हो गये नई रचना - ब्राह्मण। वह हैं पुराने
जिस्मानी ब्राह्मण। वह जिस्मानी यात्रा कराते हैं। तुम रूहानी।
तुम बच्चे अभी श्रेष्ठ बन रहे हो। यह है ही ईश्वरीय मिशन - भ्रष्टाचारी से
श्रेष्ठाचारी बनने की। मनुष्य तो बना न सकें। वास्तव में सच्ची-सच्ची सदाचार समिती
तुम्हारी है। तुम्हारा लीडर देखो कौन है! बाप कहते हैं मैं फिर से राजयोग सिखलाने
आया हूँ,
यह वही
संगमयुग है। अभी मनुष्य से देवता बनाता हूँ। तुम जानते हो हम शूद्र से अभी
ब्राह्मण बन रहे हैं। ब्राह्मणों की है चोटी। ब्रह्मा भी चोटी है। ब्रह्मा में जो
प्रवेश करते हैं,
उनको इन
ऑखों से देख नहीं सकते। बाकी तो सबको देखते हैं, बुद्धि से जानते हैं, निराकार बाप हमको पढ़ाते हैं।
ब्रह्मा को तो ब्राह्मण यहाँ चाहिए। सूक्ष्मवतन में हो न सकें। एडाप्ट करते हैं, व्यक्त ब्रह्मा सो अव्यक्त बनता
है। यह बड़ी समझने की बातें हैं। पहले-पहले लक्ष्य को समझ लिया फिर भल कहाँ भी बैठ
पढ़ सकते हैं। मुरली रोजाना सुननी पड़े। एक दिन भी मिस होने से बड़ा घाटा पड़ जाता
है क्योंकि प्वाइंट्स बड़ी गुह्य, हीरे रत्न निकलते हैं। कोई फर्स्टक्लास रत्न निकला हो और मिस कर दिया तो घाटा
पड़ जाए। रेगुलर स्टूडेन्ट बड़े एक्यूरेट होते हैं। अच्छी रीति पुरुषार्थ नहीं
करेंगे तो ऊंच पद पा नहीं सकेंगे। यह तो बहुत ऊंची पढ़ाई है। सरस्वती को बैन्जों
और कृष्ण को मुरली दी है। वास्तव में कृष्ण को भूल से दे दी है। है तो ब्रह्मा।
तुम जानते हो यह शिवबाबा का मुख है। कृष्ण का और सरस्वती का तो कोई भी कनेक्शन
नहीं है। सारी मूँझ कर दी है। अच्छा!
मीठे-मीठे सिकीलधे बच्चों प्रति मात-पिता बापदादा का याद-प्यार और गुडमार्निग।
रूहानी बाप की रूहानी बच्चों को नमस्ते।
धारणा के लिए मुख्य सार:-
1) मैं आत्मा इस शरीर रूपी पुतले को नचा रही हूँ। मैं इससे अलग हूँ, ऐसा अभ्यास करते-करते
देही-अभिमानी बनना है।
2) मुरली कभी भी मिस नहीं करनी है, रेग्युलर बनना है। पढ़ाई में बहुत-बहुत
एक्यूरेट रहना है।
वरदान:- |
माया और प्रकृति की हलचल से सदा सेफ रहने वाले दिलाराम के दिलतख्तनशीन भव |
स्लोगन:- |
ज्ञान स्वरूप, प्रेम
स्वरूप बनना ही शिक्षाओं को स्वरूप में लाना है। |
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